महिलाओं को आत्मनिर्भर कर रही दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा चल रही वैश्विक पर्यावरण सुविधा परियोजना
Shubham Rai Tripathi
#thechitrakootpost
महिलाओं को आत्मनिर्भर कर रही दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा चल रही वैश्विक पर्यावरण सुविधा परियोजना
चित्रकूट 30 जून 2020 । भारत विभिन्न प्रकार के अनाज और फल सब्जी का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। यहां अनाज को भोजन के रूप में कई विधि से ग्रहण किया जाता था। साबुत अनाज को भिगोकर अंकुरित करके पकाकर इस तरह इस्तेमाल किया जाता था, जिससे उसके अंदर के पोषक तत्व खत्म नहीं हो, लेकिन अब भारत के सबसे अधिक घरों में प्रमुख भोजन केवल चावल और गेहूं बन गए हैं। अन्य अनाज और दानेदार भोजन यहां की रसोई से दूर कर दिए गए हैं। पहले लोग गेहूं के साथ मोटा अनाज जौ, चना, बाजरा मिलाकर स्वास्थ्यवर्धक भोजन तैयार किया करते थे, इसमें स्वाद भी होता था और स्वास्थ्य का राज भी रहता था। परंतु बदलते दौर में मोटे अनाज भौतिक भोजन का हिस्सा बना दिए गए हैं। जिसमें पौष्टिकता का हिसाब कंपनियों द्वारा निर्धारित किया गया है। भारत में कृषि के लिहाज से और स्वास्थ्य के हिसाब से मोटे अनाज सदैव से ही उपयोगी रहे हैं। मोटे अनाज को फिर से चलन में लाने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र की वैश्विक पर्यावरण सुविधा परियोजना कारगर साबित हो रही है।
तुलसी कृषि विज्ञान केन्द्र गनीवां-चित्रकूट के अन्तर्गत चल रही वैश्विक पर्यावरण सुविधा परियोजना के माध्यम से उत्तर प्रदेश राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के शिव शंकर स्वयं सहायता समूह के महिला सदस्यों को सांवा का बीज वितरित किया गया, जिससे इन बीजों का संरक्षण एवं संवर्धन हो सके एवं हमारी आगे आने वाली पीढ़ियों को यह बीज उपलब्ध हो सके।
इस मौके पर आजीविका मिसन की दीदी सुनंदा गौतम ने इन अनाजों को अपने दैनिक आहार में शामिल करने से होने वाले लाभ से अवगत कराया। उन्होंने सांवा की उपयोगिता बताते हुए कहा कि सांवा का उपयोग चावल की तरह किया जाता है, उत्तर भारत में यह चावल का बहुत बड़ा विकल्प था। दुनिया के कई हिस्सों में सांवा पारंपरिक रूप से खाद्य उत्पादों और दलिया, रोटी, कुकीज, केक, चॉकलेट और माल्ट किए गए पेय पदार्थों में उपयोग किया जाता है। उबला हुआ सांवा आमतौर पर दलिया बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसमें चावल की तुलना में अधिक पोषक तत्व पाए जाते हैं और इसमें पाई जाने वाली प्रोटीन के पाचन योग्यता सबसे अधिक है। उत्तर भारत में पहले सांवा की खीर भी बड़े चाव से खाई जाती थी। पशुओं के लिए इसका बहुत उपयोग है, इसका हरा चारा पशुओं को बहुत पसंद है। यह सामान्यतः असिंचित क्षेत्र में बोई जाने वाली सूखा प्रतिरोधी फसल है।
कृषि विज्ञान केन्द्र के शोध सहायक सत्यम चौरिहा ने इन मोटे अनाजों का मूल्य वर्धन कर इससे होने वाले लाभ से सभी समूह सदस्यों को अवगत कराया तथा बताया कि कैसे हम इन मोटे अनाजों का मूल्य वर्धन कर अपने स्वदेशी उत्पादों को बाजारों में बेचकर अपनी आर्थिक एवं सामाजिक स्थति को मजबूत कर स्वावलंबी या आत्म निर्भर बन सकते है।
महिला सदस्यों से चर्चा के दौरान यह बात निकल के आयी की इन मोटे अनाजों का उत्पादन पहले लिया जाता था लेकिन आज के बदलते परिवेश में इन सभी फसलों का बीज नष्ट हो चुका था, जिसे इस परियोजना एवं दीनदयाल शोध संस्थान के माध्यम से इन बीजों का फिर से संरक्षण एवं संवर्धन हो रहा है। इस अवसर पर सभी समूह सदस्यों ने परियोजना एवं दीनदयाल शोध संस्थान को धन्यवाद ज्ञापित किया।
Shubham Rai Tripathi
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So nice. Congratulations Satyam ji to you and your team
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